बदरीनाथ धाम के कपाट टिहरी राजा के राजगुरु के हाथों खुलवाए जाते हैं। यह परंपरा सदियों से चल रही है। बृहस्पतिवार को भी टिहरी महाराज मनुजेंद्र शाह के प्रतिनिधि के रूप में राजगुरु माधव प्रसाद नौटियाल के हाथों बदरीनाथ धाम के कपाट खोले गए। इस दौरान टिहरी रियासत के कुंवर भवानी प्रताप भी उपस्थित रहे।
बताया जाता है कि नवीं शताब्दी के 888 वर्ष में जब गढ़वाल के चांदपुर गढ़ी में भानु प्रताप राजा थे, तो गुजरात की धारा नगरी के शक्ति संपन्न पंवार वंशीय राजकुमार कनक पाल बदरीनाथ धाम की यात्रा पर आ रहे थे। उनके राजकीय आतिथ्य में राजा भानु प्रताप ने अपना दल उनके स्वागत के लिए हरिद्वार भेजा। कनक पाल एक धर्मनिष्ठ राजकुमार थे। उनकी बदरीनाथ धाम में गहरी आस्था थी, जिससे उन्हें बोलांदा बदरी (बदरीनाथ भगवान से संवाद करने वाला) भी कहते थे।
राजा भानु प्रताप ने अपनी पुत्री का विवाह कनकपाल के साथ संपन्न कराया और उनसे यहीं सम्राज्य स्थापित करने का आग्रह किया। कनक पाल ने तब टिहरी राजवंश की स्थापना की और 1803 तक लगातार यहां साम्राज्य किया। टिहरी राज दरबार से ही पुरानी परंपराओं के अनुसार बदरीनाथ धाम की पूजा व्यवस्था और आर्थिक प्रबंधन का संचालन किया।
जब 1924 में भयंकर महामारी हुई, तब बदरीनाथ धाम में यात्रियों की संख्या बहुत कम हो गई थी। रावल को भोजन का संकट खड़ा हो गया, कोई सरकारी मदद भी नहीं मिली। तब से राजा ने प्रतिवर्ष 5000 रुपये की आर्थिक सहायता बदरीनाथ मंदिर को देना शुरू किया।
वर्ष 1948 के बाद उत्तर प्रदेश सरकार की ओर से बदरीनाथ धाम का प्रबंध स्वयं अपने हाथ में लिया गया, लेकिन बदरीनाथ मंदिर के धार्मिक प्रबंध, पूजा मुहूर्त और रावल की नियुक्ति के संबंध में टिहरी रियासत को प्राप्त अधिकारों को पूर्ववत संरक्षित रखा। वर्ष 1939 में बदरीनाथ-केदारनाथ मंदिर समिति का गठन हुआ जिसमें टिहरी राजवंश की परंपराएं पूर्व की भांति बरकरार रखने की बात लिखी गई है।
मंदिर समिति के पूर्व अध्यक्ष अनसूया प्रसाद भट्ट ने बताया कि टिहरी राजा के हाथों से ही बदरीनाथ धाम के कपाट खोले जाने की परंपरा थी। बाद में अधिक दूरी होने के कारण राजा के प्रतिनिधि के रूप में उनके राजगुरु प्रतिवर्ष कपाट खुलने पर बदरीनाथ धाम पहुंचते हैं और कपाट खोलते हैं।
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