Wednesday 13 November 2024

स्कूल एजूकेशन पोर्टल पर नवीनतम मानकों के अनुसार वार्षिक गोपनीय आख्या के सम्बंध में।

 




प्राचीन भारत में ‘ज्ञान, चरित्र निर्माण और कौशल’ थी शिक्षा की धुरी, इससे भटकाव ही बनी मुख्य समस्या (PART II)



नई दिल्ली। भारत की नई शिक्षा नीति में पूर्व-प्राथमिक स्तर से बच्चों को तैयार करने और पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा शामिल करने पर काफी जोर दिया गया है। इसमें शिक्षा को व्यावहारिक बनाने की भी बात है। लेकिन अतीत की शिक्षा व्यवस्था पर नजर डालें तो पता चलता है कि प्राचीन भारत में इसकी परंपरा रही है। उस समय समग्र शिक्षा ही दी जाती थी, जिसका उद्देश्य विद्यार्थी का संपूर्ण विकास होता था। उसी काल में यहां तक्षशिला और नालंदा जैसे विख्यात विश्वविद्यालय और आर्यभट्ट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य और कौटिल्य जैसे विद्वान हुए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में अतीत के उसी गौरव को लौटाने की बात है। स्वतंत्र भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद के जन्मदिन (11 नवंबर) पर मनाए जाने वाले राष्ट्रीय शिक्षा दिवस से जागरण प्राइम इस विषय पर सीरीज की शुरुआत कर रहा है। सीरीज की पहली स्टोरी में प्राचीन भारत से लेकर आजादी से पहले तक की शिक्षा व्यवस्था का विश्लेषण किया गया है।

वैदिक काल में शिक्षा व्यवस्था

प्राचीन भारत में शिक्षा पर गहन अध्ययन करने वाले और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास और संस्कृति विभाग के अध्यक्ष रहे डॉ. अनंत सदाशिव अल्तेकर (1898-1960) ने अपनी पुस्तक ‘एजुकेशन इन एनसिएंट इंडिया’ (1934) में लिखा है कि प्राचीन भारत में सम्भवतः 400 ई.पू. से पहले प्राथमिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। परिवार में ही बच्चों की प्राथमिक शिक्षा होती थी। फिर, कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से शिक्षा देने का काम शुरू किया। उसके बाद ही एक शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ, जिसमें प्राथमिक और उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी।

प्राथमिक शिक्षा शुरू करने से पहले 5 वर्ष की उम्र में बच्चों का ‘विद्यारंभ संस्कार’ होता था। अलग-अलग ग्रंथों के हवाले से उन्होंने लिखा है कि राजपुत्रों के लिए चौल-कर्म संस्कार होता था। लव और कुश ने चौल-कर्म के बाद ही शिक्षा आरंभ की थी। सालाना शिक्षा सत्र ‘उत्सर्जन समारोह’ से खत्म होता था। यह समारोह पौष या माघ (जनवरी-फरवरी) में आयोजित किया जाता था।

शिक्षाविद डॉ. वेद मित्र ने भी ‘एजुकेशन इन एनसिएंट इंडिया’ (1964) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी। उन्होंने बताया है कि उस समय प्राथमिक शिक्षा 5 वर्ष की उम्र में विद्यारम्भ संस्कार से शुरू होती थी। यह सभी जाति के बच्चों के लिये अनिवार्य था। डॉ. अल्तेकर के अनुसार इस शिक्षा की अवधि 6 वर्ष थी। उच्च शिक्षा में साहित्य तथा धर्मशास्त्र के अध्ययन की अवधि 10 वर्ष और वेद के अध्ययन की अवधि 12 वर्ष थी।

पाठ्यक्रम में परा (आध्यात्मिक) और अपरा (लौकिक) दोनों विषय शामिल थे। परा विद्या में वेद, वेदांग, पुराण, दर्शन, उपनिषद् आदि आध्यात्मिक विषय थे। अपरा विद्या में तर्कशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, भौतिकशास्त्र जैसे लौकिक विषय थे। शिक्षा का माध्यम आम तौर पर मौखिक होता था। छात्र गुरु से ग्रन्थों को सुनते और उन्हें दोहराते थे। व्याख्यान, शास्त्रार्थ, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद आदि भी आयोजित किए जाते थे। छात्रों की परीक्षा मौखिक होती थी। इसके लिए वे विद्वानों की सभा में जाते, जहां विद्वान उनसे सवाल पूछते और उन्हें जवाब देना पड़ता था।

व्यावसायिक शिक्षाः प्राचीन काल में चिकित्सा (मेडिकल), सैन्य और वाणिज्य जैसे विषयों में व्यावसायिक शिक्षा भी दी जाती थी। चिकित्साशास्त्र के अध्ययन की अवधि सात-आठ वर्ष थी। इस विषय के विशेषज्ञों में अश्विनी कुमार काफी प्रसिद्ध माने जाते थे। उस समय सैनिक शिक्षा आचार्य देते थे। इनमें महाभारत काल के द्रोणाचार्य का नाम लिया जा सकता है। तक्षशिला सैनिक शिक्षा का मशहूर केन्द्र था। यह शिक्षा विशेष रूप से क्षत्रियों और राजकुमारों के लिए थी। वैश्यों के लिए वाणिज्य शिक्षा थी। इस विषय पर कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ मशहूर है।

भारत में आज भले शिक्षा को व्यावहारिक बनाने पर जोर दिया जा रहा हो, प्राचीन भारत में इसकी परंपरा रही है। डॉ. अल्तेकर ने लिखा है, “शिक्षा का उद्देश्य विषयों का ज्ञान कराना मात्र नहीं, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में आला दर्जे के विशेषज्ञ बनाना था। इसलिए व्यावसायिक शिक्षा में प्रायोगिक शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था।” उनके अनुसार प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण के साथ धार्मिकता और आध्यात्मिकता पर आधारित भावनाओं का विकास करना था। इन खूबियों के कारण ही वैदिक काल की शिक्षा ने अनेक महान विचारकों को जन्म दिया।

वैदिक कालीन शिक्षा की खामियांः समय के साथ वैदिक काल की शिक्षा में कुछ खामियां भी उभरने लगीं। डॉ. अल्तेकर के अनुसार लगभग 500 ई. से प्राचीन शिक्षा प्रणाली के दोष सामने आने लगे। बदलते समय के अनुसार वह शिक्षा व्यवस्था भारतीयों की जरूरत पूरी नहीं कर पा रही थी। धर्म को अधिक महत्व दिए जाने के कारण पूरी शिक्षा उसके इर्द-गिर्द थी। डॉ. अल्तेकर के अनुसार, संस्कृत केन्द्रित होने और लोकभाषाओं की उपेक्षा होने से के कारण शिक्षा आम जन तक नहीं पहुंच सकी। समाज के कुछ वर्गों के लिए तो विद्यालयों के द्वार बंद थे। स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा, वैचारिक स्वतंत्रता की आजादी न होना, सांसारिक जीवन की उपेक्षा, धार्मिक शिक्षा की तुलना में लौकिक शिक्षा को निम्न माने जाने को भी खामियों में गिना जाता है।

बौद्ध काल में शिक्षा व्यवस्था

बौद्ध मठ धर्म के साथ शिक्षा के भी केंद्र थे, जहां बौद्ध भिक्षु ही शिक्षा देते थे। प्रख्यात इतिहासकार डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी (1884-1963) ने प्राचीन और बौद्ध कालीन शिक्षा पर अपनी किताब ‘एनसिएंट इंडियन एजुकेशन- ब्राह्मणिकल एंड बुद्धिस्ट’ में लिखा है, “बौद्ध अपने मठों से अलग शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं देते थे। धार्मिक और लौकिक सब प्रकार की शिक्षा बौद्ध भिक्षुओं के हाथ में थी।”

जालंधर स्थित लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के डॉ. कुलविंदर पाल द्वारा संपादित पुस्तक ‘डेवलपमेंट ऑफ एजुकेशन सिस्टम’ के अनुसार बौद्ध काल में भी शिक्षा के दो स्तर थे- प्राथमिक और उच्च शिक्षा। मठों में प्राथमिक शिक्षा सभी जाति के बच्चों के लिए उपलब्ध थी। चीनी यात्री फाह्यान, आइसिंग और ह्वेनसांग के लेखों से पता चलता है कि प्राथमिक शिक्षा 6 वर्ष की उम्र में शुरू होती थी और आम तौर पर 6 वर्ष चलती थी। पाठ्यक्रम में अक्षर ज्ञान से शुरू होकर धार्मिक के साथ चिकित्सा तथा शिल्प जैसे लौकिक विषय भी शामिल होते थे।

उच्च शिक्षा के प्रमुख केंद्र भी बौद्ध मठ ही थे। हालांकि डॉ. अल्तेकर के मुताबिक विभिन्न मठों की विशेषज्ञता अलग विषयों में थी। उच्च शिक्षा में दाखिला लेने की उम्र 12 वर्ष थी और पढ़ाई की अवधि भी 12 साल होती थी। पाठ्यक्रम में धार्मिक विषय बौद्ध भिक्षुओं के लिए होते थे। आम लोगों के लिए दर्शन, साहित्य, तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र, चिकित्साशास्त्र जैसे विषय होते थे। सामान्य तौर पर शिक्षा पाली भाषा में दी जाती थी, लेकिन वैदिक साहित्य की शिक्षा संस्कृत में होती थी।

डॉ. पाल के अनुसार वैसे तो बौद्ध-शिक्षा धर्म प्रधान थी, लेकिन व्यावसायिक शिक्षा की भी अच्छी सुविधा थी। इनमें तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा भी शामिल थी। कृषि, पशुपालन, वाणिज्य, चिकित्सा, धनुर्विद्या और ज्योतिषशास्त्र के अलावा सूत कातने, कपड़ा बुनने और कपड़े सिलने के बारे में भी बताया जाता था। डॉ. मुखर्जी के अनुसार तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा की मांग धार्मिक शिक्षा से कम नहीं थी।

बौद्ध काल में चिकित्सा शास्त्र का काफी अभूतपूर्व विकास हुआ। इसका मुख्य केन्द्र तक्षशिला विश्वविद्यालय था। बौद्ध काल में ही जीवक, चरक, धन्वन्तरि जैसे आयुर्वेदाचार्य हुए। बौद्ध विहार और स्तूपों को देख कर पता चलता है कि उस युग में भवन-निर्माण कला भी काफी उन्नत थी। इस कला के साथ मूर्तिकला की भी प्रगति हुई, जिसके प्रमाण अजन्ता और एलोरा में मिलते हैं।

डॉ. पाल की पुस्तक के अनुसार, बौद्ध काल में भारत अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा का केन्द्र बन गया था। लेकिन समय के साथ इसमें भी कुछ खामियां उभरने लगीं। दया और अहिंसा पर अधिक जोर दिए जाने के कारण युद्ध कला और अस्त्र-शस्त्र निर्माण की उपेक्षा हुई। इसलिए जब मुस्लिम शासकों का आक्रमण हुआ तो उनका सामना नहीं कर सके। सामान्य वर्ग की महिलाओं की शिक्षा की भी उपेक्षा की गई। हाथ से किए जाने वाले कार्यों को निम्न दर्जे का समझे जाने से उच्च वर्ग के लोगों ने इसे छोड़ दिया।

मध्य काल में शिक्षा

डॉ. पाल के अनुसार, लगभग पूरे मुस्लिम काल में प्राथमिक और उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी। इन दोनों स्तरों पर शिक्षा देने के लिए मकतब और मदरसे खोले गए थे। मकतब प्राथमिक शिक्षा और मदरसे उच्च शिक्षा के मुख्य केंद्र थे। हालांकि वहां केवल मुसलमान बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। वैदिक काल के उपनयन संस्कार और बौद्ध काल के प्रवज्या संस्कार की तरह मुस्लिम युग में बिस्मिल्लाह खानी की रस्म के बाद शिक्षा शुरू होती थी। उच्च शिक्षा केंद्र के रूप में मदरसे पूरे देश में खोले गए थे जहां दूसरे मुस्लिम देशों से भी छात्र आते थे।

मुस्लिम शासन काल में राज्य की भाषा फारसी थी। इसलिए फारसी को शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था। धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत छात्रों को कुरान, सूफी सिद्धान्तों एवं इस्लामी इतिहास आदि का अध्ययन करना पड़ता था। दूसरे छात्र भाषा साहित्य के अलावा कृषि, गणित, भूगोल, कानून, ज्योतिषशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, यूनानी चिकित्सा आदि का अध्ययन कर सकते थे। डॉ. पाल के अनुसार, चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने के लिए संस्कृत के ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया गया था। मुस्लिम शासकों ने सैनिक शिक्षा पर भी काफी बल दिया।

ब्रिटिश शासन में शिक्षा

भारत में पश्चिमी शिक्षा की शुरुआत 19वीं सदी में हुई। दरअसल, पश्चिम का विरोध जब उग्र होने लगा तो तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने अंग्रेज शिक्षाशास्त्री लॉर्ड मैकाले को बुलवाया। मैकाले ने 10 जून 1834 को गवर्नर जनरल की काउंसिल के कानूनी सदस्य के रूप में काम करना शुरू किया और बाद में लोक शिक्षा समिति का अध्यक्ष बना। मैकाले ने प्राच्यवादी (ओरिएंटल लिटरेचर) और पाश्चात्यवादी की मध्यस्थता करते हुए 2 फरवरी 1835 को अपनी सलाह गवर्नर जनरल को भेज दी।

अपने स्मरण पत्र में मैकाले ने भारतीय भाषाओं को अध्ययन के लिहाज से पूरी तरह निरर्थक बताया। उसने लिखा कि प्रचलित देसी भाषाओं में साहित्यिक तथा वैज्ञानिक ज्ञान कोष का अभाव है। एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी का साहित्य भारत और अरब के सम्पूर्ण साहित्य के बराबर है। लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने मैकाले के सभी विचारों का अनुमोदन किया। ब्रिटिश शासन ने तय किया कि शिक्षा के लिए निर्धारित राशि का सबसे उचित प्रयोग केवल अंग्रेजी की शिक्षा के लिए किया जाएगा।

अंग्रेजी हुकूमत ने फिल्टरेशन की नीति अपनाई। गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने 24 नवंबर 1839 को इसे शिक्षा की सरकारी नीति के रूप में स्वीकार करते हुए आदेश जारी किया। उसमें कहा गया कि सरकार का प्रयास समाज के ऊपरी तबके में उच्च शिक्षा का प्रसार करना होना चाहिए। उनसे यह छनकर (फिल्टर) आम लोगों तक पहुंचेगी।

अगले कुछ वर्षों के बाद अंग्रेजी शासन को भारतीय शिक्षा नीति में बदलाव करते हुए एक स्थायी नीति की जरूरत महसूस होने लगी। इसके लिए ब्रिटिश संसद ने एक संसदीय समिति बनाई। समिति के अध्यक्ष चार्ल्स वुड के नाम पर 1854 में वुड्स डिस्पैच (Wood's Despatch) प्रस्तुत किया गया। यह डिस्पैच तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को भेजा गया था। इसे भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्ना कार्टा भी कहा जाता है। वुड्स ने प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय भाषा और उच्च शिक्षा में अंग्रेजी भाषा के इस्तेमाल की सलाह दी।

उसके बाद सरकार ने इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में 1882 में एक आयोग का गठन किया। आयोग को 1854 के बाद शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति की समीक्षा की जिम्मेदारी दी गई। डॉ. पाल के अनुसार, इसका एक कारण यह भी था कि इंग्लैंड में पादरी लोग यह प्रचार कर रहे थे कि भारत में शिक्षा वुड के प्रस्तावों के अनुसार नहीं हो रही है।

हंटर कमीशन को भारत का पहला शिक्षा आयोग भी कहा जाता है। इसमें मिशनरियों के अलावा भूदेव मुखर्जी और आनंद मोहन बोस जैसे भारतीय सदस्य भी थे। पुणे के डी.वाई. पाटिल कॉलेज के असिस्टेंट प्रो. किरण खोट ने लिखा है कि इस समिति ने प्राइमरी शिक्षा के विकास की बात करने के साथ शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी जरूरत बताई। समिति का मानना था कि सरकार को प्राथमिक शिक्षा पर अधिक जोर देना चाहिए। उनमें पढ़ाई का तरीका सरल हो। समिति ने रात्रि स्कूल खोलने का भी सुझाव दिया। माध्यमिक (सेकंडरी) शिक्षा को लेकर भी इसने कुछ अहम सुझाव दिए। इनमें माध्यमिक शिक्षा से सरकार को धीरे-धीरे बाहर निकलना, माध्यमिक शिक्षा का विस्तार निजी हाथों में सौंपना और शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए सरकारी ग्रांट देना शामिल हैं।

उसके बाद लॉर्ड कर्जन ने भी भारत में शिक्षा व्यवस्था को बदलने की कोशिश की। उसने मैकाले की नीति की आलोचना करते हुए कहा कि उसमें देसी भाषाओं के साथ पक्षपात किया गया था। उसने परीक्षाओं पर अधिक बल देने वाली शिक्षा पद्धति की आलोचना की। हालांकि डॉ. पाल के अनुसार, इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक था। व्यवस्था में बदलाव लाते हुए लॉर्ड कर्जन ने विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ाया।

कर्जन ने सितंबर 1901 में शिमला में शिक्षा सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें शिक्षा के सभी पक्षों से जुड़े 150 प्रस्ताव पारित हुए। इनमें प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा सुधारने के लिए सरकारी फंडिंग पर जोर दिया गया। औद्योगिक विकास की मांग पूरी करने के लिए नए पाठ्यक्रम शुरू करने का सुझाव दिया गया। उसके बाद विश्वविद्यालयों की स्थिति की समीक्षा के लिए 27 जनवरी 1902 को थॉमस रेले की अध्यक्षता में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग का गठन हुआ। इसकी सिफारिशें 1904 के यूनिवर्सिटी एक्ट में शामिल की गईं। इसके कुछ साल बाद 1913 में फिर एक बड़ा बदलाव हुआ जब 21 फरवरी को शिक्षा नीति घोषित की गई। उसमें कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले समेत कई भारतीय विद्वानों ने 6 से 10 साल की उम्र के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त और अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव रखा। उसके बाद शिक्षा के क्षेत्र में समन्वय की जरूरत महसूस हुई तो 1921 में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ एजुकेशन) की स्थापना की गई। यह संस्था आज भी शिक्षा मंत्रालय का हिस्सा है और हर साल अपने सुझाव सरकार को सौंपती है।

इस तरह, वैदिक काल में ज्ञान, चरित्र निर्माण और कौशल प्रदान करने के उद्देश्यों के साथ शुरू हुई औपचारिक शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजी शासन के खत्म होते-हाेते रटने वाली और परीक्षा केंद्रित शिक्षा व्यवस्था में तब्दील हो गई। हालांकि, इस दौर में विज्ञान शिक्षा बेहतर हुई क्योंकि ज्यादातर आधुनिक विज्ञान और तकनीकी पश्चिमी देशों में ही विकसित हुई थी और उनकी भाषा कमोबेश अंग्रेजी थी।

Source - एस.के. सिंह/स्कंद विवेक धर, नई दिल्ली।
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CBSE ने कम किया सिलेबस, परीक्षा में ले जा सकेंगे किताब, कंप्यूटर से होगी आंसर चेकिंग! बोर्ड परीक्षा में बड़े बदलाव



CBSE 10th, 12th Exam Changes 2025: सेंट्रल बोर्ड ऑफ सेकेंडरी एजुकेशन (CBSE) ने 10वीं और 12वीं के एग्जाम में बड़ा बदलाव किया है। यह बदलाव अगली बोर्ड परीक्षा यानी 2025 से लागू होने जा रहे हैं। इंदौर में हुए 'ब्रिजिंग द गैप' प्रिंसिपल्स समिट में, CBSE के भोपाल रीजनल ऑफिसर विकास कुमार अग्रवाल ने इस संबंध में जानकारी दी है। उन्होंने बताया कि पढ़ाई का बोझ कम करने और बच्चों के सीखने के तरीके को बेहतर बनाने के लिए यह कदम उठाया गया है।

सबसे बड़ा बदलाव यह है कि सभी विषयों का सिलेबस 15% कम कर दिया गया है। अग्रवाल जी ने बताया कि इससे बच्चों को विषयों को गहराई से समझने और पढ़ाई में ज़्यादा रुचि लेने में मदद मिलेगी। CBSE का मानना है कि इससे बच्चों पर पढ़ाई का बोझ कम होगा। रटने की बजाय बच्चे अब महत्वपूर्ण विषयों पर ध्यान दे पाएंगे।

आंसर की डिजिटल चेकिंग और ओपन बुक एग्जाम:

CBSE अब डिजिटल तरीके से आंसर शीट चेक करने जा रहा है। इससे जल्दी और साफ-सुथरे यानी पारदर्शी तरीके से रिजल्ट तैयार हो सकेंगे। अंग्रेजी साहित्य और सामाजिक विज्ञान के विषयों के लिए ओपन बुक एग्जाम शुरू करने की योजना है। इसमें बच्चे अपनी किताबें देखकर एग्जाम दे सकेंगे। इससे बच्चों की याददाश्त नहीं बल्कि उनकी सोचने और समझने की क्षमता का पता चलेगा।

CBSE एग्जाम पैटर्न में बदलाव:

एग्जाम पैटर्न में भी बदलाव हुआ है। जिसके अनुसार अब इंटरनल असेसमेंट के नंबर 40% होंगे और बाकी 60% नंबर फाइनल एग्जाम के होंगे। इससे बच्चों को साल भर पढ़ने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। प्रोजेक्ट, असाइनमेंट और समय-समय पर होने वाले टेस्ट अब इंटरनल असेसमेंट में शामिल होंगे। इससे बच्चों के ज्ञान का सही आंकलन हो पाएगा। उन्हें अपनी योग्यता दिखाने के लिए कई मौके मिलेंगे।

बोर्ड ने यह भी बताया कि 2025 में एक ही बार बोर्ड एग्जाम होंगे। 2026 से फिर से दो बार बोर्ड एग्जाम करवाए जाएंगे। यह कदम पढ़ाई को आसान बनाने और बच्चों को अपनी योग्यता दिखाने के लिए ज्यादा मौके देने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।

Tuesday 12 November 2024

शिक्षा जगत समाचार 13 नवंबर 2024

 













तीन शिक्षा आयोग, चार नीतियां भी नहीं दिला सकीं प्राथमिक शिक्षा को ‘ए’ ग्रेड (Part I)


आजादी के बाद भारत की शिक्षा व्यवस्था सुधारने के लिए कई आयोग बने, राष्ट्रीय शिक्षा नीतियां आईं, अनेक रिपोर्ट तैयार किए गए, लेकिन देश की शिक्षा पर अब भी सवाल उठ रहे हैं। इतने आयोगों और रिपोर्टों के बावजूद सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले 14 से 18 आयु वर्ग के एक-चौथाई बच्चे दूसरी कक्षा की किताब नहीं पढ़ सकते हैं, आधे से ज्यादा बच्चे ऐसे हैं जो कक्षा 3-4 के सवाल हल नहीं कर पाते। यह समस्या इसलिए अधिक गंभीर है क्योंकि लगभग 55% बच्चे सरकारी स्कूलों में ही पढ़ते हैं। स्कूलों में शिक्षा की क्वालिटी की समस्या है, क्योंकि मेधावी छात्र टीचर नहीं बनना चाहते। शिक्षा को सभी बच्चों तक पहुंचाने के लिए ‘शिक्षा का अधिकार’ कानून भी बना। हालांकि, संसाधनों के अभाव और देखरेख की कमी के चलते यह अधिकार कागजों में ही सिमट कर रह गया।

ऐसा नहीं कि सब कुछ स्याह ही है। वर्ष 2000 में 86% बच्चे प्राइमरी स्कूल जाते थे और कक्षा 5 तक पहुंचते-पहुंचते सिर्फ 47% बच्चे बच जाते थे। अब प्राइमरी (1-5) और अपर प्राइमरी (6-8) स्तर पर एनरोलमेंट 100 प्रतिशत के करीब पहुंच गया है। लेकिन ऊपर की कक्षाओं में जाने के साथ एनरोलमेंट घटने लगता है। सेकंडरी स्तर पर एनरोलमेंट 79.5 और हायर सेकंडरी स्तर पर 57.5 है। प्राइमरी से सेकंडरी कक्षाओं में जाने की तुलना में सेकंडरी से हायर सेकंडरी में जाने की ट्रांजिशन की दर भी कम है। हालांकि ड्रॉपआउट दर में सुधार है और सेकंडरी स्तर पर यह सिर्फ 12.6% रह गई है।

विशेषज्ञों का कहना है कि हमें सबसे पहले फाउंडेशनल स्टेज को मजबूत करना पड़ेगा। मानव मस्तिष्क का लगभग 80-90% विकास छह साल तक की उम्र तक हो जाता है। इसलिए हमें प्री-प्राइमरी स्तर पर बच्चों को ध्यान देना पड़ेगा ताकि आगे उनके सीखने का मार्ग सुगम हो सके। इसके लिए जापान और वियतनाम जैसे देशों का उदाहरण देते हैं। उनका एक और अहम सुझाव शिक्षा की क्वालिटी में इस तरह सुधार करना है जिससे कक्षा तीन तक के बच्चे सामान्य पढ़ाई-लिखाई कर सकें और बुनियादी गणित हल करने लग जाएं। अच्छी बात यह है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में इन बातों पर जोर दिया गया है, और इसके सकारात्मक परिणाम दिखने भी लगे हैं।

आजादी के बाद स्कूली शिक्षा

केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने 1948 में सुझाव दिया कि माध्यमिक शिक्षा पर पुनर्विचार के लिए एक आयोग का गठन किया जाना चाहिए, क्योंकि इसके विद्यार्थियों के सामने दो ही विकल्प होते हैं। या तो वे उच्च शिक्षा हासिल करें या नौकरी तलाशें। अपनी रुचि के अनुसार कुछ करने की क्षमता उसमें नहीं होती।

तब सरकार ने मद्रास विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. ए. एल. स्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में 23 सितंबर 1952 को माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया। इसे मुदलियर आयोग भी कहा जाता है। आयोग का मुख्य उद्देश्य ऐसे सुझाव देना था जो माध्यमिक शिक्षा के उद्देश्यों, शिक्षण व्यवस्था, संगठन, प्राथमिक और विश्वविद्यालय शिक्षा के बीच संबंध और पूरे देश के लिए उपयोगी माध्यमिक शिक्षा के ढांचे को सुधारने में सहायक हों। आयोग ने 29 अगस्त 1953 को अपनी रिपोर्ट सरकार को दी। माध्यमिक शिक्षा नीरस और संकुचित बताते हुए इसने कहा कि इसमें चरित्र निर्माण पर ध्यान नहीं दिया गया है, न यह छात्रों के व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करती है।

माध्यमिक शिक्षा आयोग की सिफारिशें पूरी तरह लागू नहीं होने के कारण शिक्षा क्षेत्र में कई कमियां बनी रहीं। उन्हें दूर करने के लिए सरकार ने 1964 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (UGC) के तत्कालीन चेयरमैन प्रो. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में आयोग का गठन किया। इसका उद्देश्य समस्याओं का अध्ययन कर शिक्षा प्रणाली में सुधार के उपाय बताना था। आयोग ने इस बात पर बल दिया कि किसी भी राष्ट्रीय विकास योजना में शिक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए। शिक्षा को उस सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परिवर्तनों का साधन बनाया जाए जो राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए आवश्यक हैं।

आयोग में स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा, कृषि शिक्षा समेत कुल 12 टास्क फोर्स थे। इनके अलावा महिलाओं की शिक्षा, प्रारंभिक शिक्षा, स्कूल पाठ्यक्रम जैसे विषयों पर सात वर्किंग ग्रुप भी बनाए गए थे। आयोग ने 29 जून 1966 को तत्कालीन शिक्षा मंत्री एम.सी. छागला को अपनी सौंपी। इसने भारतीय शिक्षा प्रणाली में सुधार के लिए कुल 23 सिफारिशें दीं।

1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति

आजादी से पहले 1917-19 में सैडलर कमीशन ने 10+2+3 शिक्षा प्रणाली का प्रस्ताव रखा था। उसके बाद 1952-53 में मुदलियार कमीशन ने 8 वर्ष की प्राथमिक, 3 वर्ष की हाई स्कूल एवं 3 वर्ष की स्नातक व्यवस्था का प्रस्तावित दिया। योजना आयोग ने वर्ष 1960 में 12 वर्ष की स्कूली शिक्षा और 3 वर्ष की स्नातक शिक्षा की बात कही। वर्ष 1962 में केन्द्रीय शिक्षा सलाकर परिषद ने भी इसी संकल्प को दोहराया और कोठारी कमीशन ने भी यही सिफारिश की। वर्ष 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी इसे पूरे देश में लागू करने की बात कही गई।

सरकार ने 1986 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति घोषित की। इसे 20 अप्रैल 1986 को संसद में विचार और मंजूरी के लिए रखा गया। इस नीति के मुख्य उद्देश्य थे- माध्यमिक स्तर पर शिक्षा का पाठ्यक्रम रोजगार उन्मुख होना चाहिए, छात्रों को वैज्ञानिक और तकनीकी विकास से अवगत कराया जाए ताकि भविष्य में उनका उपयोग कर सकें, निरक्षरता दूर करने के लिए सरकारी और गैर-सरकारी प्रयासों को प्रोत्साहित करना चाहिए, वयस्क शिक्षा, औपचारिक शिक्षा और ओपन स्कूलों की आवश्यकता पर जोर दिया जाना चाहिए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 की घोषणा के बाद उसी वर्ष इसकी कार्य योजना प्रकाशित की गई और अगले साल से उस पर अमल शुरू हो गया। लेकिन 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा की सरकार बनी तो मई 1990 में इसकी समीक्षा के लिए प्रो. राममूर्ति की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया। इसका उद्देश्य पुरानी शिक्षा नीतियों की समीक्षा करना, औद्योगीकरण को प्रमोट करना और ग्रामीण क्षेत्रों में विकास को बढ़ावा देने के लिए नए उपाय बताना था।

राममूर्ति समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 के तहत शिशुओं की देखभाल एवं शिक्षा (ECCE) की व्यवस्था की गति बहुत धीमी है। उसने आंगनवाड़ी व्यवस्था का विस्तार करने की सिफारिश की। उसने कहा कि 1990-91 तक 50% प्राथमिक स्कूलों को ब्लैक बोर्ड योजना का लाभ पहुंचाया जाना था, लेकिन अब तक केवल 30% स्कूलों को इसका लाभ मिला है। 10+2+3 प्रणाली भी पूरे देश में लागू नहीं हो पाई। उच्च शिक्षा का स्तर उठाने के लिए प्रवेश पर नियंत्रण की बात कही गई थी, वह नहीं किया गया। शिक्षकों का मूल्यांकन भी औपचारिकता बन कर रह गया। इन सब से उच्च शिक्षा का स्तर गिरा है। सबसे अधिक चिन्ता का विषय यह है कि उच्च शिक्षा में अंग्रेजी का वर्चस्व अभी तक बना हुआ है। समिति ने उच्च शिक्षा के स्तर को उन्नत बनाने के लिए महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों पर कठोर नियन्त्रण और प्रवेश के लिए चयन प्रणाली के पालन का सुझाव दिया।

राममूर्ति समिति की रिपोर्ट का अध्ययन करने के लिए 1992 में जनार्दन रेड्डी समिति बनाई गई। रेड्डी समिति की अनुशंसा थी कि देश की सभी ऐसी ही समितियां बनाएं ताकि अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को शिक्षा का अधिकतम लाभ मिल सके। समिति ने कॉमन स्कूल प्रणाली के विकास पर जोर दिया ताकि पिछड़े वर्ग के लोगों को सभी आवश्यक सुविधाएं प्राप्त हो सकें। समिति ने बच्चों की मुफ्त और सार्वभौमिक शिक्षा, वयस्क शिक्षा, माध्यमिक शिक्षा, विश्वविद्यालय शिक्षा, शिक्षक प्रशिक्षण और वित्तीय प्रावधानों के बारे में भी सुझाव दिए। इसने अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (AICTE) बनाने की भी सिफारिश की।

शिक्षा का अधिकार कानून

यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में प्राथमिक शिक्षा को सभी बच्चों के लिए अनिवार्य बनाने के लिए साल 2009 में निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा अधिनियम (RTE) पारित किया गया। यह कानून एक अप्रैल 2010 से लागू हो गया। इसके तहत 6 से 14 साल तक के सभी बच्चों को अनिवार्य और मुफ्त बुनियादी शिक्षा की कानूनी रूप से गारंटी दी गई।

शिक्षा के अधिकार कानून के तहत सभी सरकारी स्कूलों में मुफ्त शिक्षा का प्रावधान किया गया। प्राइवेट स्कूलों में 25% सीटें कमजोर आर्थिक परिवार से आने वाले बच्चों के लिए नि:शुल्क आरक्षित करने का प्रावधान किया गया। इसके अलावा, यह कानून छात्र शिक्षक अनुपात (पीटीआर), भवन और बुनियादी ढांचे, स्कूल-कार्य दिवस, शिक्षक-कार्य घंटों से संबंधित मानदंडों और मानकों को निर्धारित करता है। यह कानून प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति का प्रावधान करता है। यह कानून जनगणना, चुनाव और आपदा राहत के अलावा गैर-शैक्षणिक कार्यों के लिए शिक्षकों की तैनाती पर रोक लगाने का भी प्रावधान करता है।

तत्कालीन सरकार ने कानून के जरिए शिक्षा का अधिकार सुनिश्चित करने की कोशिश की थी। लेकिन कानून को असरदार तरीके से लागू करने के लिए आवश्यक संसाधन न होने के चलते इस कानून के सभी अंश कभी ढंग से लागू नहीं हो पाए। निजी स्कूलों में 25 फीसदी सीट पर गरीब बच्चों को प्रवेश देने के प्रावधान को अव्यवहारिक माना गया था और यह साबित भी हुआ। प्राइवेट स्कूलों ने फॉर्म, यूनिफॉर्म जैसे खर्चों के नाम पर शुल्क मांगना शुरू कर दिया। ऐसे में गरीब परिवार अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजने से बचने लगे।

हालांकि, इन खामियों के बावजूद देशभर के स्कूलों में लागू ज्यादातर प्रावधान इसी कानून द्वारा निर्धारित किए गए हैं। ऐसे में इस कानून को आजादी के बाद स्कूली शिक्षा में किए गए बड़े कदमों के रूप में गिना जाएगा।

शिक्षा व्यवस्था पर बार-बार सवाल

सवाल है कि इतने प्रयासों के बावजूद शिक्षा व्यवस्था को लेकर बार-बार सवाल क्यों उठते हैं। प्रख्यात शिक्षाविद् और एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक प्रो.जे.एस. राजपूत कहते हैं, “हमने अपनी शिक्षा को दो हिस्सों में बांट दिया है। पहला उनके लिए, जो पैसा चुका सकते हैं उनके लिए प्राइवेट स्कूलों पर अच्छी शिक्षा उपलब्ध है। वहीं, जो पैसा देने में समर्थ नहीं हैं उनके लिए अच्छी शिक्षा दूर की कौड़ी बन चुकी है।” वे कहते हैं, हमने बच्चों को स्कूलों में शिक्षा तो दी लेकिन नैतिकता का पाठ नहीं दिया। उन्हें शालीनता सिखाने और राष्ट्र के प्रति कर्तव्यबोध सिखाने में हम पिछड़ गए। जब तक प्राइमरी शिक्षा नहीं सुधरेगी हमारी संसद नहीं सुधरेगी।

वे कहते हैं, शिक्षा से राष्ट्र निर्माण का सबसे अच्छा उदाहरण मुझे जापान का लगता है। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जापान बिल्कुल तबाह हो गया था। उन्होंने तय किया था कि अपने देश का पुनर्निर्माण प्राथमिक स्कूलों के दम पर करना है। उन्होंने अध्यापकों को सम्मान दिया और उन पर विश्वास किया। उनसे कहा कि समय से स्कूल जाइए। बच्चों को सिखाइए कि मेहनत करना है, समय बर्बाद नहीं करना है और देश से प्रेम करना है। कुछ ही दशकों में जापान दुनिया के शीर्ष देशों में आ गया। प्राइमरी स्कूलों में सिखाई गई बातें बच्चे कभी नहीं भूलते।

स्कूली शिक्षा सिर्फ स्कूल तक निर्भर नहीं होती। वह और कई बातों पर निर्भर करती है। राजपूत इसका उदाहरण देते हैं, “मैं ग्रेटर नोएडा में रहता हूं। हम यहां आसपास के बच्चों को घर बुला कर पढ़ाते हैं। एक दिन एक 11 साल की बालिका आई। पूछने पर उसने बताया कि वह स्कूल नहीं जाती। वजह पूछने पर उसकी मां ने कहा कि हम पति-पत्नी दिहाड़ी मजदूर हैं। स्कूल ढाई किलोमीटर दूर है। दो चौराहे पार करने होते हैं। कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है। बच्चा स्कूल कैसे जाएगा? इसके बाद मैंने ग्रेटर नोएडा अथॉरिटी और प्रशासन से बात की कि अगर कोई बस चल जाए जो सभी स्कूलों को आपस में कनेक्ट कर दे। सभी को यह आइडिया बहुत पसंद आया, लेकिन बस आज तक नहीं चली। जबकि अगर ऐसी बच चल जाए तो स्कूलों में एनरोलमेंट दोगुना हो सकता है।”

शिक्षकों के स्तर पर भी सवाल

यूनिफाइड डिस्ट्रिक्ट इन्फॉर्मेशन सिस्टम फॉर एजुकेशन (UDISE) की नवीनतम रिपोर्ट (2021-22) के अनुसार छात्र शिक्षक अनुपात (PTR) 30 से नीचे आ गया है। प्राइमरी स्तर पर यह 26.17, अपर प्राइमरी (6-8) स्तर पर 19.45 और सेकंडरी (9-10) स्तर पर 17.60 है। हालांकि हायर सेकंडरी स्तर पर यह 27.08 है। वर्ष 2018-19 और वर्ष 2020-21 के आंकड़े देखें तो औसत तो बेहतर होता लगता है, लेकिन जब जागरण प्राइम ने ‘स्कूल ऑफ एक्सीलेंस’ का दर्जा प्राप्त भोपाल के एक सरकारी स्कूल के प्रिंसिपल से बात की तो उन्होंने बताया कि उनके यहां 1900 से ज्यादा छात्र और लगभग 60 शिक्षक हैं। यानी प्रदेश की राजधानी के ही प्रतिष्ठित स्कूल में छात्र-शिक्षक अनुपात 30 से अधिक है।

शिक्षकों की क्वालिटी की समस्या निजी स्कूलों में भी है। नोएडा के एक प्रतिष्ठित स्कूल के मैनेजमेंट में शामिल सीनियर टीचर अल्का शर्मा (नाम परिवर्तित) ने बताया, “मैं 10 साल से जॉब इंटरव्यू ले रही हूं। जो टीचर इंटरव्यू के लिए आते हैं, उनके पास क्वालिफिकेशन सर्टिफिकेट तो होता है लेकिन विषय की समझ कमजोर होती है। हमारे यहां अब भी टीचर वे लोग बन रहे हैं जिनको दूसरी जगह काम नहीं मिलता है। जब तक ऐसे लोग टीचिंग के पेशे में आएंगे तब तक क्वालिटी नहीं सुधरेगी।”

वे कहती हैं, जो बच्चे पढ़ाई में लगातार अच्छा कर रहे हैं वे इस पेशे में नहीं आना चाहते। उन्हें लगता है कि अच्छा पैकेज नहीं मिलेगा। जो इस पेशे में आ रहे हैं वे औसत या उससे भी कम दर्जे के हैं। जब क्वालिटी टीचर ही नहीं हैं तो क्वालिटी शिक्षा कैसे दे पाएंगे? 50 टीचर में मुश्किल से 5 अच्छे टीचर मिलेंगे, लेकिन हमें हर क्लास के लिए अच्छे टीचर की जरूरत है।

प्रो. राजपूत इसका कारण बताते हैं, “हमने अपने शिक्षकों पर कभी भरोसा नहीं किया। उन्हें सम्मान नहीं दिया। ब्यूरोक्रेट्स ने शासन को समझा दिया कि देश में आबादी बहुत है और बहुत से लोगों को नौकरी की जरूरत है। इसलिए हम कम पैसों पर भी शिक्षकों को नियुक्त कर सकते हैं। शिक्षा मित्र और संविदा पर शिक्षक रखे जाने लगे। कुछ एक दूरदराज के स्कूलों पर जहां कोई शिक्षक जाना न चाहे वहां तो ऐसी व्यवस्था अस्थायी तौर पर की जा सकती थी, लेकिन शहरों में जहां शिक्षक आसानी से उपलब्ध थे वहां भी अस्थायी शिक्षकों की नियुक्ति की जाने लगी। इससे शिक्षा को काफी नुकसान हुआ।”

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में हर स्तर पर शिक्षकों को समाज के सबसे सम्मानित सदस्य के रूप में पुनर्स्थापित करने की बात कही गई है, क्योंकि वे हमारी अगली पीढ़ी को आकार देते हैं। इसमें कहा गया है कि सबसे प्रतिभाशाली लोगों को शिक्षण पेशे में शामिल होने के लिए प्रेरित करना चाहिए, उनकी जीविका, सम्मान, गरिमा और स्वायत्तता सुनिश्चित करनी चाहिए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में स्कूल शिक्षा के मौजूदा 10+2 ढांचे को बदलकर 5+3+3+4 किया गया है। इसमें 3 से 18 वर्ष की आयु तक के बच्चे शामिल होंगे। 10+2 ढांचे में 3-6 साल के बच्चे शामिल नहीं होते क्योंकि पहली कक्षा की शुरुआत 6 वर्ष की उम्र में होती है। नई नीति के 5+3+3+4 ढांचे में 3 वर्ष की आयु से ही प्रारंभिक बाल्यकाल देखभाल और शिक्षा (ECCE) का आधार बनाया गया है। नीति में कहा गया है, “व्यक्ति के लगभग 85% मस्तिष्क का विकास 6 वर्ष की आयु से पहले हो जाता है। यह बताता है कि मस्तिष्क के स्वस्थ विकास के लिए प्रारंभिक वर्षों में उपयुक्त देखभाल कितना महत्वपूर्ण है।”

एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) तैयार करने वाले प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की सीईओ रुक्मिणी बनर्जी कहती हैं, “तीन साल से आठ साल तक के फाउंडेशन स्टेज के बच्चों पर नीति में विशेष ध्यान दिया गया है। मेरे विचार से बच्चों के आगे सीखने की यात्रा को सुगम बनाने के लिए इस उम्र के विद्यार्थियों पर ध्यान देना बहुत महत्वपूर्ण है।” पारंपरिक रूप से देखें तो 3 से 6 साल के बच्चे आंगनवाड़ी या महिला एवं बाल विकास केंद्रों में जाते हैं। लेकिन आंगनवाड़ी में पढ़ाई के अलावा पोषण, टीकाकरण जैसे काम भी होते हैं। इस वजह से कई राज्यों में आंगनवाड़ी में पूर्व प्रार्थमिक शिक्षा को ज्यादा तवज्जो नहीं मिलती थी। नई नीति के बाद आंगनवाड़ी शिक्षा को भी मजबूत किया जा रहा है।

बनर्जी का मानना है कि पहली कक्षा में दाखिले के लिए उम्र की सीमा पर सख्ती से अमल होना चाहिए। वे कहती हैं, प्राइवेट स्कूलों में तो एलकेजी-यूकेजी की कक्षाएं होती हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों में पढ़ाई पहली कक्षा से ही शुरू होती थी। नई शिक्षा नीति में 5 से 6 साल के उम्र के बच्चों के लिए ‘बाल वाटिका’ का प्रावधान किया गया है। इसको स्कूली शिक्षा प्रणाली से जोड़ने में थोड़ा समय लगेगा, संसाधनों की भी जरूरत पड़ेगी। लेकिन बच्चा 6 साल का होगा तभी पहली कक्षा में जाएगा और उससे पहले उसके लिए कोई व्यवस्था की जाएगी- यह बहुत ही महत्वपूर्ण कदम है।

प्रथम फाउंडेशन कई राज्यों में सरकारों के साथ मिलकर काम कर रहा है। बनर्जी के अनुसार, प्री-प्राइमरी स्तर पर अलग-अलग राज्य अलग तरीके से अमल कर रहे हैं। पंजाब और हिमाचल प्रदेश ने 2017 में ही इस तरफ कदम उठाए थे। वहां राज्य सरकारों ने देखा कि बड़ी संख्या में लोग अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में ले जा रहे हैं जहां एलकेजी-यूकेजी की व्यवस्था थी। दोनों राज्यों ने 2017 से अपने स्कूलों में प्री-प्राइमरी कक्षाएं शुरू की हैं। इससे उनके स्कूलों में एनरोलमेंट भी बढ़ा है। हरियाणा में भी पिछले कई साल से आंगनवाड़ी में पूर्व-प्राथमिक शिक्षा को मजबूत किया जा रहा है। आंध्र प्रदेश में आंगनवाड़ी के दो साल और पहली तथा दूसरी कक्षा को मिलाकर समग्र रूप दिया जा रहा है। ये सारे बदलाव राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 की वजह से हुए हैं।

“नई शिक्षा नीति में कहा गया है कि अगर तीसरी कक्षा के विद्यार्थियों को सामान्य वाक्य पढ़ने-लिखने और बुनियादी गणित का ज्ञान नहीं है तो बाकी नीतियों का कोई मतलब नहीं रह जाता। राज्य सरकारों ने भी इस बात को समझा है और वे इस दिशा में प्रगति के लिए कोई न कोई रणनीति अपना रही हैं। इन सबका नतीजा दिखने में कुछ साल लग सकते हैं, लेकिन सबने उस दिशा में कदम बढ़ाया है। ‘निपुण भारत’ की संकल्पना मेरे विचार से सकारात्मक कदम है।”

इंफ्रास्ट्रक्चर, अच्छे शिक्षक, फंडिंग की कमी

बनर्जी कहती हैं, “हम 2005 से असर की रिपोर्ट बना रहे हैं। हमने देखा है कि हर बार इनपुट में सुधार आया है। टॉयलेट, बाउंड्री वॉल जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर, मध्यान्ह भोजन इन सबमें साल-दर-साल सुधार हो रहा है, सरकार में चाहे जो हो। हालांकि यह सवाल उठ सकता है कि इन्फ्रास्ट्रक्चर या सुविधाएं और कितनी होनी चाहिए, लेकिन इसमें निरंतर सुधार है। हालांकि यह सवाल उठता है कि बच्चों के सीखने के स्तर में सुधार क्यों नहीं हो रहा है। मुझे लगता है कि पहले बच्चे बिना मजबूत बुनियाद के स्कूल पहुंचते थे। नई शिक्षा नीति में बुनियाद को मजबूत करने की बात कही गई है। इसका असर हमें आने वाले सालों में दिखेगा।”

शिक्षा पर कुल सार्वजनिक खर्च जीडीपी का 6% करने की बात 1968 में ही तय की गई थी, लेकिन छह दशक बाद भी हम उस लक्ष्य से काफी दूर हैं। आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 के अनुसार, अब भी खर्च जीडीपी के 3% से नीचे है। फंडिंग के सवाल पर बनर्जी कहती हैं, “कितना खर्च होना चाहिए और कितना हो रहा है, यह अलग बात है। लेकिन मैं इतना जरूर कहूंगी की फाउंडेशनल स्टेज के लिए पहले की तुलना में अधिक प्रयास किया जा रहे हैं। पहली और दूसरी कक्षा के शिक्षकों को काफी ट्रेनिंग दी जा रही है। ‘जादुई पिटारा’ जैसे पढ़ने और गणित की सामग्री स्कूलों में बड़े पैमाने में दिखाई दे रही हैं। राज्य सरकारें इसे लेकर गंभीर हैं और उसके अच्छे परिणाम भी आ रहे हैं।”

वियतनाम की स्कूली शिक्षा से क्या सीख सकते हैं हम

वियतनाम एशिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक होने के कारण चर्चा में है ही, लेकिन इसकी दुनियाभर में चर्चा इसकी बेहतर शिक्षा की स्थिति को लेकर भी है। पहली बार 2012 में पूरी दुनिया का ध्यान वियतनाम पर तब गया जब ऑर्गनाइजेशन फॉर इकोनॉमिक को-ऑपरेशन एंड डेवलपमेंट (OECD) की ओर से कराए जाने वाले टेस्ट प्रोग्राम फॉर इंटरनेशनल स्टूडेंट असेसमेंट (PISA) के नतीजे सामने आए।

इस टेस्ट में वियतनाम के छात्र 63 देशों में गणित में 16वें और पढ़ने में 18वें स्थान पर थे। यह अमेरिका और ब्रिटेन दोनों से अच्छा प्रदर्शन था। किसी भी अन्य विकासशील देश से तो यह बहुत अधिक था। साल 2015 में वियतनाम का प्रदर्शन थोड़ा फीका रहा। फिर भी 68 देशों के मुकाबले यहां के बच्चे गणित में 21वें और पढ़ने में 31वें स्थान पर रहे। यह भी दोनों विषयों में अमेरिका और गणित में ब्रिटेन से बेहतर प्रदर्शन था।

दुनिया में शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारने के लिए बने ग्लोबल प्रोग्राम (अब बंद) द रिसर्च ऑन इम्प्रूविंग सिस्टम्स ऑफ एजुकेशन (RISE) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वियतनामी बच्चों का मजबूत शैक्षणिक प्रदर्शन का कारण उनके बेहतर स्कूल हैं। वियतनाम के लगभग सभी (95%) प्राथमिक विद्यालय के शिक्षकों के पास यूनिवर्सिटी डिग्री है, जबकि भारत में यह 79% है। वियतनामी शिक्षकों के पास औसतन 11 साल का शिक्षा का अनुभव है, जबकि भारत में यह औसतन 7 साल है।

प्राइमरी स्कूलों में शिक्षकों की अनुपस्थिति वियतनाम में सबसे कम है। लगभग सभी वियतनामी प्राइमरी स्कूलों (96%) में बिजली है। भारत में ऐसे स्कूल 86% हैं। वियतनाम के 74% प्राइमरी स्कूलों में लाइब्रेरी है, जबकि भारत के 21% स्कूलों में ही पुस्तकालय मौजूद हैं।

अमेरिकी संस्था सेंटर फॉर ग्लोबल डेवलपमेंट की ओर से 2022 में प्रकाशित एक स्टडी में बताया गया था कि 1960 के बाद से 87 विकासशील देशों में से 56 में शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आई है। लेकिन, वियतनाम उन देशों में से एक है, जहां स्कूल और बेहतर हुए हैं।

राइस की रिपोर्ट की मानें तो वियतनाम की अच्छी शिक्षा का सबसे बड़ा कारण इसके शिक्षकों की योग्यता है। ऐसा नहीं है कि ये शिक्षक सबसे योग्य हैं, बल्कि वे पढ़ाने में ज़्यादा प्रभावी हैं। वियतनाम के शिक्षक अपना काम अच्छी तरह से करते हैं क्योंकि उनका मैनेजमेंट अच्छा है। उन्हें लगातार प्रशिक्षण मिलता है और उन्हें कक्षाओं को और अधिक आकर्षक बनाने की स्वतंत्रता दी जाती है।

सभी राज्यों को अपने बजट का कम से कम 20% शिक्षा पर खर्च करना अनिवार्य है। इससे फंडिंग की कमी नहीं होती। दूरदराज के इलाकों में शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए वहां तैनात शिक्षकों को ज्यादा वेतन दिया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि शिक्षकों का मूल्यांकन उनके छात्रों के प्रदर्शन पर आधारित होता है। जिनके छात्र अच्छा प्रदर्शन करते हैं, उन्हें प्रतिष्ठित "शिक्षक उत्कृष्टता" उपाधियों से सम्मानित किया जाता है।

Source - एस.के. सिंह/स्कंद विवेक धर, नई दिल्ली।
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उत्तराखंड में शुरू हुआ MOOC (Fundamentals of ICT Tools for School Teachers) कोर्स, शिक्षा की गुणवत्ता में होगा सुधार


 

Monday 11 November 2024

ROAD ACCIDENT: देहरादून में बड़ा सड़क हादसा... ट्रक और कार की टक्कर; छह छात्रों की मौत

 


उत्तराखंड की राजधानी देहरादून में बड़ा सड़क हादसा हुआ है। ट्रक और इनोवा कार की टक्कर में छह लोगों की मौत हो गई है। जबकि एक घायल है। घायल को अस्पताल में भर्ती कराया गया है। मौके पर पहुंची पुलिस ने शवों को क्षतिग्रस्त गाड़ी से निकालकर अस्पताल पहुंचाया है। बताया जा रहा है कि कार सवार सभी छात्र थे।


जानकारी के अनुसार, देर रात ओएनजीसी चौक पर ट्रक और इनोवा कार की टक्कर हो गई। हादसे में छह लोगों की मौत हो गई, जबकि एक घायल है। हादसा इतना भीषण था कि कार के परखच्चे उड़ गए। चालक ट्रक छोड़कर मौके से भाग गया।

मौके पर पहुंची पुलिस ने क्षतिग्रस्त कार से पांच छात्रों के शव दून अस्पताल और एक का शव महंत इंद्रेश अस्पताल भेजा। इसमें छात्राएं भी बताई जा रही हैं। कुछ छात्र दिल्ली और कुछ हिमाचल के हैं।


दून हॉस्पिटल में कुल पांच शव पहुंचे। इनमें से दो महिलाएं और तीन पुरुष थे। तीन मृतकों के शवों को दून अस्पताल की मोर्चरी में रखवा दिया है। जबकि बाकी को जगह नहीं होने पर इंद्रेश अस्पताल भेजा गया है। सूचना मिलने पर एसपी सिटी भी अस्पताल पहुंचे।

मृतक
- गुनीत पुत्री तेज प्रकाश सिंह, उम्र 19 वर्ष निवासी साईं लोक जीएमएस रोड।
कुणाल कुकरेजा पुत्र जसवीर कुकरेजा, उम्र 23 वर्ष निवासी गली नंबर 11 राजेंद्रनगर देहरादून, मूलनिवासी चंबा हिमाचल प्रदेश।
- नव्या गोयल पुत्री पल्लव गोयल, उम्र 23 वर्ष, निवासी आनंद चौक तिलक रोड।
- अतुल अग्रवाल पुत्र सुनील अग्रवाल, उम्र 24 वर्ष निवासी कालिदास रोड।
कामाक्षी पुत्री तुषार सिंघल उम्र 20 निवासी कांवली रोड, देहरादून।
ऋषभ जैन पुत्र तरुण जैन, उम्र 24 वर्ष निवासी राजपुर रोड।

शिक्षा जगत समाचार 12 नवंबर 2024

 









देहरादून: इंडियन ऑयल ने 240 पदों पर निकाली भर्ती, B Tech छात्र अप्रेंटिसशिप के लिए ऐसे करें अप्लाई

 


देहरादून: इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन लिमिटेड (IOCL) ने अप्रेंटिशिप के 240 पदों पर भर्ती का आयोजन किया है। अप्रेंटिसशिप के लिए अभ्यर्थियों का चयन बिना परीक्षा दिए ही होगी भर्ती।

👉DIRECT LINK  https://iocl.com/latest-job-opening
ब्रांच के अनुसार पद

मैकेनिकल इंजीनियरिंग -20
सिविल इंजीनियरिंग -20
इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग -20
इलेक्ट्रिकल एंड इलेक्ट्रोनिक्स इंजीनियरिंग -20
इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इंस्ट्रूमेंटेशन इंजीनियरिंग/इलेक्ट्रोनिक्स -20
इंस्ट्रूमेंटेशन एंड कंट्रोल इंजीनियरिंग/इंस्ट्रूमेंटेशन -20
नॉन इंजीनियर ग्रेजुएट अप्रेंटिस (Arts, Science, Commerce, BA, BSc, BCom, BBA, BBM, BCA) के लिए -120 रिक्त पदों पर भर्ती निकाली गई है।

भर्ती तिथियां

भर्ती की अंतिम तिथि 29 नवंबर 2024 को है। इंडियन ऑयल अप्रेंटिस भर्ती में शॉर्टलिस्ट अभ्यर्थियों की सूची IOCl की आधिकारिक वेबसाइट पर 6 दिसंबर 2024 को जारी की जाएगी। चयनित अभ्यर्थियों को 18 दिसंबर 2024 से 20 दिसंबर 2024 तक डॉक्यूमेंट वेरिफिकेशन के लिए बुलाया जाएगा।

यहां करें अप्लाई

Indian Oil की इस भर्ती के लिए इच्छुक अभ्यर्थी आधिकारिक वेबसाइट iocl.com पर ऑनलाइन आवेदन कर सकते हैं।