वैदिक काल में शिक्षा व्यवस्था
प्राचीन भारत में शिक्षा पर गहन अध्ययन करने वाले और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में भारतीय इतिहास और संस्कृति विभाग के अध्यक्ष रहे डॉ. अनंत सदाशिव अल्तेकर (1898-1960) ने अपनी पुस्तक ‘एजुकेशन इन एनसिएंट इंडिया’ (1934) में लिखा है कि प्राचीन भारत में सम्भवतः 400 ई.पू. से पहले प्राथमिक शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं थी। परिवार में ही बच्चों की प्राथमिक शिक्षा होती थी। फिर, कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से शिक्षा देने का काम शुरू किया। उसके बाद ही एक शिक्षा प्रणाली का विकास हुआ, जिसमें प्राथमिक और उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी।
प्राथमिक शिक्षा शुरू करने से पहले 5 वर्ष की उम्र में बच्चों का ‘विद्यारंभ संस्कार’ होता था। अलग-अलग ग्रंथों के हवाले से उन्होंने लिखा है कि राजपुत्रों के लिए चौल-कर्म संस्कार होता था। लव और कुश ने चौल-कर्म के बाद ही शिक्षा आरंभ की थी। सालाना शिक्षा सत्र ‘उत्सर्जन समारोह’ से खत्म होता था। यह समारोह पौष या माघ (जनवरी-फरवरी) में आयोजित किया जाता था।
शिक्षाविद डॉ. वेद मित्र ने भी ‘एजुकेशन इन एनसिएंट इंडिया’ (1964) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी। उन्होंने बताया है कि उस समय प्राथमिक शिक्षा 5 वर्ष की उम्र में विद्यारम्भ संस्कार से शुरू होती थी। यह सभी जाति के बच्चों के लिये अनिवार्य था। डॉ. अल्तेकर के अनुसार इस शिक्षा की अवधि 6 वर्ष थी। उच्च शिक्षा में साहित्य तथा धर्मशास्त्र के अध्ययन की अवधि 10 वर्ष और वेद के अध्ययन की अवधि 12 वर्ष थी।
पाठ्यक्रम में परा (आध्यात्मिक) और अपरा (लौकिक) दोनों विषय शामिल थे। परा विद्या में वेद, वेदांग, पुराण, दर्शन, उपनिषद् आदि आध्यात्मिक विषय थे। अपरा विद्या में तर्कशास्त्र, भूगर्भशास्त्र, भौतिकशास्त्र जैसे लौकिक विषय थे। शिक्षा का माध्यम आम तौर पर मौखिक होता था। छात्र गुरु से ग्रन्थों को सुनते और उन्हें दोहराते थे। व्याख्यान, शास्त्रार्थ, प्रश्नोत्तर, वाद-विवाद आदि भी आयोजित किए जाते थे। छात्रों की परीक्षा मौखिक होती थी। इसके लिए वे विद्वानों की सभा में जाते, जहां विद्वान उनसे सवाल पूछते और उन्हें जवाब देना पड़ता था।
व्यावसायिक शिक्षाः प्राचीन काल में चिकित्सा (मेडिकल), सैन्य और वाणिज्य जैसे विषयों में व्यावसायिक शिक्षा भी दी जाती थी। चिकित्साशास्त्र के अध्ययन की अवधि सात-आठ वर्ष थी। इस विषय के विशेषज्ञों में अश्विनी कुमार काफी प्रसिद्ध माने जाते थे। उस समय सैनिक शिक्षा आचार्य देते थे। इनमें महाभारत काल के द्रोणाचार्य का नाम लिया जा सकता है। तक्षशिला सैनिक शिक्षा का मशहूर केन्द्र था। यह शिक्षा विशेष रूप से क्षत्रियों और राजकुमारों के लिए थी। वैश्यों के लिए वाणिज्य शिक्षा थी। इस विषय पर कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’ मशहूर है।
भारत में आज भले शिक्षा को व्यावहारिक बनाने पर जोर दिया जा रहा हो, प्राचीन भारत में इसकी परंपरा रही है। डॉ. अल्तेकर ने लिखा है, “शिक्षा का उद्देश्य विषयों का ज्ञान कराना मात्र नहीं, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में आला दर्जे के विशेषज्ञ बनाना था। इसलिए व्यावसायिक शिक्षा में प्रायोगिक शिक्षा पर अधिक बल दिया जाता था।” उनके अनुसार प्राचीन भारत में शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण के साथ धार्मिकता और आध्यात्मिकता पर आधारित भावनाओं का विकास करना था। इन खूबियों के कारण ही वैदिक काल की शिक्षा ने अनेक महान विचारकों को जन्म दिया।
वैदिक कालीन शिक्षा की खामियांः समय के साथ वैदिक काल की शिक्षा में कुछ खामियां भी उभरने लगीं। डॉ. अल्तेकर के अनुसार लगभग 500 ई. से प्राचीन शिक्षा प्रणाली के दोष सामने आने लगे। बदलते समय के अनुसार वह शिक्षा व्यवस्था भारतीयों की जरूरत पूरी नहीं कर पा रही थी। धर्म को अधिक महत्व दिए जाने के कारण पूरी शिक्षा उसके इर्द-गिर्द थी। डॉ. अल्तेकर के अनुसार, संस्कृत केन्द्रित होने और लोकभाषाओं की उपेक्षा होने से के कारण शिक्षा आम जन तक नहीं पहुंच सकी। समाज के कुछ वर्गों के लिए तो विद्यालयों के द्वार बंद थे। स्त्री-शिक्षा की उपेक्षा, वैचारिक स्वतंत्रता की आजादी न होना, सांसारिक जीवन की उपेक्षा, धार्मिक शिक्षा की तुलना में लौकिक शिक्षा को निम्न माने जाने को भी खामियों में गिना जाता है।
बौद्ध काल में शिक्षा व्यवस्था
बौद्ध मठ धर्म के साथ शिक्षा के भी केंद्र थे, जहां बौद्ध भिक्षु ही शिक्षा देते थे। प्रख्यात इतिहासकार डॉ. राधा कुमुद मुखर्जी (1884-1963) ने प्राचीन और बौद्ध कालीन शिक्षा पर अपनी किताब ‘एनसिएंट इंडियन एजुकेशन- ब्राह्मणिकल एंड बुद्धिस्ट’ में लिखा है, “बौद्ध अपने मठों से अलग शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं देते थे। धार्मिक और लौकिक सब प्रकार की शिक्षा बौद्ध भिक्षुओं के हाथ में थी।”
जालंधर स्थित लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी के डॉ. कुलविंदर पाल द्वारा संपादित पुस्तक ‘डेवलपमेंट ऑफ एजुकेशन सिस्टम’ के अनुसार बौद्ध काल में भी शिक्षा के दो स्तर थे- प्राथमिक और उच्च शिक्षा। मठों में प्राथमिक शिक्षा सभी जाति के बच्चों के लिए उपलब्ध थी। चीनी यात्री फाह्यान, आइसिंग और ह्वेनसांग के लेखों से पता चलता है कि प्राथमिक शिक्षा 6 वर्ष की उम्र में शुरू होती थी और आम तौर पर 6 वर्ष चलती थी। पाठ्यक्रम में अक्षर ज्ञान से शुरू होकर धार्मिक के साथ चिकित्सा तथा शिल्प जैसे लौकिक विषय भी शामिल होते थे।
उच्च शिक्षा के प्रमुख केंद्र भी बौद्ध मठ ही थे। हालांकि डॉ. अल्तेकर के मुताबिक विभिन्न मठों की विशेषज्ञता अलग विषयों में थी। उच्च शिक्षा में दाखिला लेने की उम्र 12 वर्ष थी और पढ़ाई की अवधि भी 12 साल होती थी। पाठ्यक्रम में धार्मिक विषय बौद्ध भिक्षुओं के लिए होते थे। आम लोगों के लिए दर्शन, साहित्य, तर्कशास्त्र, न्यायशास्त्र, चिकित्साशास्त्र जैसे विषय होते थे। सामान्य तौर पर शिक्षा पाली भाषा में दी जाती थी, लेकिन वैदिक साहित्य की शिक्षा संस्कृत में होती थी।
डॉ. पाल के अनुसार वैसे तो बौद्ध-शिक्षा धर्म प्रधान थी, लेकिन व्यावसायिक शिक्षा की भी अच्छी सुविधा थी। इनमें तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा भी शामिल थी। कृषि, पशुपालन, वाणिज्य, चिकित्सा, धनुर्विद्या और ज्योतिषशास्त्र के अलावा सूत कातने, कपड़ा बुनने और कपड़े सिलने के बारे में भी बताया जाता था। डॉ. मुखर्जी के अनुसार तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा की मांग धार्मिक शिक्षा से कम नहीं थी।
बौद्ध काल में चिकित्सा शास्त्र का काफी अभूतपूर्व विकास हुआ। इसका मुख्य केन्द्र तक्षशिला विश्वविद्यालय था। बौद्ध काल में ही जीवक, चरक, धन्वन्तरि जैसे आयुर्वेदाचार्य हुए। बौद्ध विहार और स्तूपों को देख कर पता चलता है कि उस युग में भवन-निर्माण कला भी काफी उन्नत थी। इस कला के साथ मूर्तिकला की भी प्रगति हुई, जिसके प्रमाण अजन्ता और एलोरा में मिलते हैं।
डॉ. पाल की पुस्तक के अनुसार, बौद्ध काल में भारत अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा का केन्द्र बन गया था। लेकिन समय के साथ इसमें भी कुछ खामियां उभरने लगीं। दया और अहिंसा पर अधिक जोर दिए जाने के कारण युद्ध कला और अस्त्र-शस्त्र निर्माण की उपेक्षा हुई। इसलिए जब मुस्लिम शासकों का आक्रमण हुआ तो उनका सामना नहीं कर सके। सामान्य वर्ग की महिलाओं की शिक्षा की भी उपेक्षा की गई। हाथ से किए जाने वाले कार्यों को निम्न दर्जे का समझे जाने से उच्च वर्ग के लोगों ने इसे छोड़ दिया।
मध्य काल में शिक्षा
डॉ. पाल के अनुसार, लगभग पूरे मुस्लिम काल में प्राथमिक और उच्च शिक्षा की व्यवस्था थी। इन दोनों स्तरों पर शिक्षा देने के लिए मकतब और मदरसे खोले गए थे। मकतब प्राथमिक शिक्षा और मदरसे उच्च शिक्षा के मुख्य केंद्र थे। हालांकि वहां केवल मुसलमान बच्चे शिक्षा प्राप्त कर सकते थे। वैदिक काल के उपनयन संस्कार और बौद्ध काल के प्रवज्या संस्कार की तरह मुस्लिम युग में बिस्मिल्लाह खानी की रस्म के बाद शिक्षा शुरू होती थी। उच्च शिक्षा केंद्र के रूप में मदरसे पूरे देश में खोले गए थे जहां दूसरे मुस्लिम देशों से भी छात्र आते थे।
मुस्लिम शासन काल में राज्य की भाषा फारसी थी। इसलिए फारसी को शिक्षा के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित किया गया था। धार्मिक शिक्षा के अन्तर्गत छात्रों को कुरान, सूफी सिद्धान्तों एवं इस्लामी इतिहास आदि का अध्ययन करना पड़ता था। दूसरे छात्र भाषा साहित्य के अलावा कृषि, गणित, भूगोल, कानून, ज्योतिषशास्त्र, अर्थशास्त्र, नीतिशास्त्र, दर्शनशास्त्र, यूनानी चिकित्सा आदि का अध्ययन कर सकते थे। डॉ. पाल के अनुसार, चिकित्साशास्त्र की शिक्षा देने के लिए संस्कृत के ग्रन्थों का फारसी में अनुवाद किया गया था। मुस्लिम शासकों ने सैनिक शिक्षा पर भी काफी बल दिया।
ब्रिटिश शासन में शिक्षा
भारत में पश्चिमी शिक्षा की शुरुआत 19वीं सदी में हुई। दरअसल, पश्चिम का विरोध जब उग्र होने लगा तो तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने अंग्रेज शिक्षाशास्त्री लॉर्ड मैकाले को बुलवाया। मैकाले ने 10 जून 1834 को गवर्नर जनरल की काउंसिल के कानूनी सदस्य के रूप में काम करना शुरू किया और बाद में लोक शिक्षा समिति का अध्यक्ष बना। मैकाले ने प्राच्यवादी (ओरिएंटल लिटरेचर) और पाश्चात्यवादी की मध्यस्थता करते हुए 2 फरवरी 1835 को अपनी सलाह गवर्नर जनरल को भेज दी।
अपने स्मरण पत्र में मैकाले ने भारतीय भाषाओं को अध्ययन के लिहाज से पूरी तरह निरर्थक बताया। उसने लिखा कि प्रचलित देसी भाषाओं में साहित्यिक तथा वैज्ञानिक ज्ञान कोष का अभाव है। एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय की एक अलमारी का साहित्य भारत और अरब के सम्पूर्ण साहित्य के बराबर है। लॉर्ड विलियम बेंटिंक ने मैकाले के सभी विचारों का अनुमोदन किया। ब्रिटिश शासन ने तय किया कि शिक्षा के लिए निर्धारित राशि का सबसे उचित प्रयोग केवल अंग्रेजी की शिक्षा के लिए किया जाएगा।
अंग्रेजी हुकूमत ने फिल्टरेशन की नीति अपनाई। गवर्नर जनरल लॉर्ड ऑकलैंड ने 24 नवंबर 1839 को इसे शिक्षा की सरकारी नीति के रूप में स्वीकार करते हुए आदेश जारी किया। उसमें कहा गया कि सरकार का प्रयास समाज के ऊपरी तबके में उच्च शिक्षा का प्रसार करना होना चाहिए। उनसे यह छनकर (फिल्टर) आम लोगों तक पहुंचेगी।
अगले कुछ वर्षों के बाद अंग्रेजी शासन को भारतीय शिक्षा नीति में बदलाव करते हुए एक स्थायी नीति की जरूरत महसूस होने लगी। इसके लिए ब्रिटिश संसद ने एक संसदीय समिति बनाई। समिति के अध्यक्ष चार्ल्स वुड के नाम पर 1854 में वुड्स डिस्पैच (Wood's Despatch) प्रस्तुत किया गया। यह डिस्पैच तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी को भेजा गया था। इसे भारत में अंग्रेजी शिक्षा का मैग्ना कार्टा भी कहा जाता है। वुड्स ने प्राथमिक शिक्षा में स्थानीय भाषा और उच्च शिक्षा में अंग्रेजी भाषा के इस्तेमाल की सलाह दी।
उसके बाद सरकार ने इतिहासकार विलियम विल्सन हंटर की अध्यक्षता में 1882 में एक आयोग का गठन किया। आयोग को 1854 के बाद शिक्षा के क्षेत्र में हुई प्रगति की समीक्षा की जिम्मेदारी दी गई। डॉ. पाल के अनुसार, इसका एक कारण यह भी था कि इंग्लैंड में पादरी लोग यह प्रचार कर रहे थे कि भारत में शिक्षा वुड के प्रस्तावों के अनुसार नहीं हो रही है।
हंटर कमीशन को भारत का पहला शिक्षा आयोग भी कहा जाता है। इसमें मिशनरियों के अलावा भूदेव मुखर्जी और आनंद मोहन बोस जैसे भारतीय सदस्य भी थे। पुणे के डी.वाई. पाटिल कॉलेज के असिस्टेंट प्रो. किरण खोट ने लिखा है कि इस समिति ने प्राइमरी शिक्षा के विकास की बात करने के साथ शिक्षकों के प्रशिक्षण की भी जरूरत बताई। समिति का मानना था कि सरकार को प्राथमिक शिक्षा पर अधिक जोर देना चाहिए। उनमें पढ़ाई का तरीका सरल हो। समिति ने रात्रि स्कूल खोलने का भी सुझाव दिया। माध्यमिक (सेकंडरी) शिक्षा को लेकर भी इसने कुछ अहम सुझाव दिए। इनमें माध्यमिक शिक्षा से सरकार को धीरे-धीरे बाहर निकलना, माध्यमिक शिक्षा का विस्तार निजी हाथों में सौंपना और शिक्षा का स्तर सुधारने के लिए सरकारी ग्रांट देना शामिल हैं।
उसके बाद लॉर्ड कर्जन ने भी भारत में शिक्षा व्यवस्था को बदलने की कोशिश की। उसने मैकाले की नीति की आलोचना करते हुए कहा कि उसमें देसी भाषाओं के साथ पक्षपात किया गया था। उसने परीक्षाओं पर अधिक बल देने वाली शिक्षा पद्धति की आलोचना की। हालांकि डॉ. पाल के अनुसार, इसका मुख्य उद्देश्य राजनीतिक था। व्यवस्था में बदलाव लाते हुए लॉर्ड कर्जन ने विश्वविद्यालयों पर सरकारी नियंत्रण बढ़ाया।
कर्जन ने सितंबर 1901 में शिमला में शिक्षा सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें शिक्षा के सभी पक्षों से जुड़े 150 प्रस्ताव पारित हुए। इनमें प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा सुधारने के लिए सरकारी फंडिंग पर जोर दिया गया। औद्योगिक विकास की मांग पूरी करने के लिए नए पाठ्यक्रम शुरू करने का सुझाव दिया गया। उसके बाद विश्वविद्यालयों की स्थिति की समीक्षा के लिए 27 जनवरी 1902 को थॉमस रेले की अध्यक्षता में भारतीय विश्वविद्यालय आयोग का गठन हुआ। इसकी सिफारिशें 1904 के यूनिवर्सिटी एक्ट में शामिल की गईं। इसके कुछ साल बाद 1913 में फिर एक बड़ा बदलाव हुआ जब 21 फरवरी को शिक्षा नीति घोषित की गई। उसमें कांग्रेस नेता गोपाल कृष्ण गोखले समेत कई भारतीय विद्वानों ने 6 से 10 साल की उम्र के बच्चों के लिए प्राथमिक शिक्षा को मुफ्त और अनिवार्य बनाने का प्रस्ताव रखा। उसके बाद शिक्षा के क्षेत्र में समन्वय की जरूरत महसूस हुई तो 1921 में केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड (सेंट्रल एडवाइजरी बोर्ड ऑफ एजुकेशन) की स्थापना की गई। यह संस्था आज भी शिक्षा मंत्रालय का हिस्सा है और हर साल अपने सुझाव सरकार को सौंपती है।
इस तरह, वैदिक काल में ज्ञान, चरित्र निर्माण और कौशल प्रदान करने के उद्देश्यों के साथ शुरू हुई औपचारिक शिक्षा व्यवस्था अंग्रेजी शासन के खत्म होते-हाेते रटने वाली और परीक्षा केंद्रित शिक्षा व्यवस्था में तब्दील हो गई। हालांकि, इस दौर में विज्ञान शिक्षा बेहतर हुई क्योंकि ज्यादातर आधुनिक विज्ञान और तकनीकी पश्चिमी देशों में ही विकसित हुई थी और उनकी भाषा कमोबेश अंग्रेजी थी।
Source - एस.के. सिंह/स्कंद विवेक धर, नई दिल्ली।
https://www.jagran.com/
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