सन् 1871 में जॉन रस्किन मजदूरों के हितों को ध्यान में रखते हुए एक पत्रिका निकलते थे। इस पत्रिका की तारीफ टालस्टाय ने भी किया था और बाद में महात्मा गांधी ने भी इस पत्रिका को खोजकर पढ़ा था। रस्किन की राय है कि वही शिक्षा लेनी चाहिए और वही शिक्षा दरअसल शिक्षा है- जो आत्मा का ज्ञान करावें। मनुष्य मात्र को बचपन से यह जानना चाहिए कि साफ हवा, स्वच्छ पानी और साफ-सुथरी मिट्टी किसे कहते हैं। इन्हें किस तरह रखा जाए और कैसे उपयोग किया जाए? यह बुनियादी सवाल है।
दरअसल, इस मुद्दे पर हर दौर में चर्चा होनी चाहिए। हमें सबक लेना चाहिए कि औद्योगिक विकास के अब तक दौर में हमने इन प्रकृतिक धरोहरों के साथ किस तरह का व्यवहार किया है? शिक्षा के विषय में बौध दर्शन के विद्वान् आचार्य रिनपोछे सवाल करते है कि-
क्या हमारी मौजूद शिक्षा व्यवस्था में -प्रज्ञा शील और समाधि के लिए कोई स्थान है ? मतलब विवेक, नैतिकता और संसार के बन्धनों से मुक्ति के उपायों की कोई गुंजाइश आज की शिक्षा से हम प्राप्त कर सकते हैं ?
यह सवाल इस लिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि एक ऐसे समय में हर चीज की कीमत लगाई जा रही है, उसे पण्य वस्तु मानकर खरीद-फरोख्त के लिए अवसरों की तलाश की जा रही है। तब शिक्षा के क्षेत्र में भी यही फॉर्मूला अपनाया रहा हो, तो इसमें कोई अचरज की बात नहीं। एक अनुमान के मुताबिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के जरिए सन् 2035 तक हम विभिन्न क्षेत्रों से अपनी अर्थव्यवस्था एक ट्रिलियन डॉलर योगदान की सम्भावना तलाशने में लगे हैं। इनमें स्कूलों-कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था से लेकर वित्तीय संस्थानों, बैंकिंग, सरकारी कामकाज, और 'आटोमेशन' की वजह हर क्षेत्र में छंटनी और नौकरियों के सेलेक्सन की प्रक्रिया में भी बड़े बदलाव आने के संकेत मिल रहे हैं।
विश्व विख्यात इतिहासकार युवाल नोआ हरारी दावा करते हैं कि -
सन् 2034 तक 'अलगोरिदम ' और 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' हर क्षेत्र में दुनिया को संचालित करने की स्थिति में आ जाएंगे। सवाल है कि तब हमारे स्कूल के उस 'दुखहरन मास्टर साहब' का क्या होगा,
जब आदमी के गढ़ने के सांचे 'अलगोरिदम' और 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' के हवाले होगा तो फिर मास्टर साहब' जैसों की सेवा तो समाप्त ही समझें। क्योंकि इस तकनीक को समझने के पहले उन जैसे मास्टर साहबों का दम निकल जाएगा।
इस कृत्रिम बौद्धिक मशीन के जन्मदाता एलन टयूरिंग है। सन् 1950 में एलेन टयूरिंग ने एक ऐसा कम्प्यूटर प्रोग्राम तैयार किया जो आदमी की तरह सोच सकता था। सन् 1956 में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की परिभाषा करते जॉन मैकार्थी कहते है कि-
"कृत्रिम बौद्धिकता बौद्धिक मशीन बनाने का एक विज्ञान है। इसके जरिए हर तरह की सीखने की कला और बौद्धिक स्वरूप को मशीन के द्वारा क्रियान्वित किया जा सकता है।" इस तकनीक का शिक्षा के क्षेत्र में आने का तात्कालिक असर यह होगा की क्लास रूम में अब बौद्धिक आदान-प्रदान का माध्यम अध्यापक के अलावा 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' भी होगा,जो दूरस्थ शिक्षा में क्रांतिकारी बदलाव के साथ -साथ क्लासरूम के स्वरूप को भी पूरी तरह बदल देगा। यह कृत्रिम बौद्धिक मशीन देर-सवेर भारत में भी शिक्षा का माध्यम तो बनेगी ही। पर सवाल है कि क्या गांवों में अभी उस तरह का 'इंफ्रास्ट्रक्चर' या ऐसी तकनीक से लैश प्राथमिक स्तर पर मास्टर साहब उपलब्ध हैं? हम तकनीकी विकास के हर क्षेत्र में नित नई उड़ान भर रहे हैं।
उम्मीद करना चाहिए कि शिक्षा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं रह पाएगा। दावा किया जा रहा है कि 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' भी अध्ययन के दौरान छात्रों के हर तरह की मुश्किलों को आसान करने का एक प्लेटफॉर्म होगा। यह हर छात्र के खूबियों और खामियों को डाटा की सटीक व्याख्या के जरिए समाधान करने का सक्षम है। यह किसी छात्र की पसंदीदा और नापसंदगी वाले 'टॉपिक' को समझाने और तदनुरूप उनकी वरीयताएं तय करने की योग्यता भी इसे प्राप्त है। इससे छात्रों को अपने विषय को समझने और अपनी अवधारणा स्पष्ट करने में भी आसानी होगी।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मौजूदगी से भविष्य में ऐसे और कई चमत्कारिक परिवर्तन आने की सम्भावना हैं, जिनकी अभी तक कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। यह एक तरह से दुधारी तलवार वाली तकनीक है। इसलिए उन खतरों से वाकिफ होना भी उतना ही जरूरी है। विश्व विख्यात इतिहासकार युवाल नोआ हरारी अपनी हाल में प्रकाशित पुस्तक 'Nexus'( नेक्सस ) चेतावनी दे रहे है कि-
"मनुष्यों के हाथ 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' के रूप में सामूहिक संहार का एक हथियार हाथ लग गया है।" इस पुस्तक में युवाल नोआ हरारी ने पाषाण काल से लेकर 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' के युग तक मनुष्यों द्वारा सूचना के तैयार किए गये 'नेटवर्क ' उन्होंने अपने अब तक के अध्ययन और अनुभवों के जरिये अभिव्यक्त किया है।
मानवीय सभ्यता के विकास में भाषा का प्रचलन शुरू होने के बाद सूचनाओं के आदान-प्रदान, बात-विचार और व्यवहार में आसानी तो हुई ही। संचार के दूसरे माध्यमों मसलन प्रिंट- रेडियो, वायरलेस- टेलीविजन -टेलीग्राफ, इंटरनेट और सोशल मीडिया के जरिये पलक झपकते सूचनाओं का एक स्थान से दुनिया के किसी हिस्से में सूचनाओं का पहुंचाना बेहद आसान हो गया है। ऐसी भविष्यवाणी 19वीं सदी के उत्तरार्ध में निकोला टेस्ला ने भी किया था कि -आने वाले समय में ' सिंगल विंडो सिस्टम' के जरिए किसी फाइल को दुनिया के छोर से दूसरे छोर पर भेजना संभव हो जाएगा। उनकी अधिकतर भविष्यवाणियों की तरह यह भविष्यवाणी भी आज की हकीकत है। मानवी सभ्यता ने भाषा के विकास के बाद बातचीत के जरिए भी कई संस्थाओं का विकास किया है। शिक्षा भी उन संस्थानों में एक है, जहां बातचीत के जरिए ही हम अपने विचार का आदान-प्रदान करते हैं।
लोकतंत्र के बारे में युवाल नोआ हरारी का कहना है कि -
लोकतंत्र की संस्था भी बातचीत के जरिए ही मजबूत हुई है, और आगे बढ़ी है। आज सोशल मीडिया टेलीविजन और इंटरनेट हमारे विचारों को एक स्थान से दूसरे पर स्थान तक पहुंचाने के माध्यम है। इन माध्यमों से हम अपने विचारों से देश और दुनिया को अवगत कराते हैं। लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकास में इन माध्यमों का उल्लेखनीय योगदान है। सवाल है कि अगर 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' और 'अलगोरिदम' ही भविष्य में हमारा भाग्य विधाता होने वाले हैं , तो हमारी बातचीत की प्रचलित परपाटी का क्या होगा?
क्या हम अपने विचारों से एक दूसरे को अवगत कराने और उनसे असहमत होने के अपने मौलिक अधिकार से-जो किसी लोकतंत्र की खूबसूरती है, वंचित नहीं हो जाएंगे? ऐसी आशंका है कि भविष्य में 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' बौद्धिक आदान- प्रदान में सबसे बड़ी बाधा उत्पन्न करेगा। हमारा दिमाग और हमारे सोच का तरीका एक 'कार्बनिक इन्टीटी' है और 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' उस तरह की 'ऑर्गेनिक इन्टीटी' नहीं है।
यह एक ऐसी 'इन्टीटी' है ,जो अनथक और अनवरत काम करता है। यह न सिर्फ हमारा ध्यान आकर्षित करता है, बल्कि अब तो यह हमारे जिन्दगी के एक -एक पल की निगरानी भी कर रहा है। इसलिए हमारी बातचीत के दायरे सिर्फ अपने तक सीमित नहीं रह गया है, बल्कि उनके व्यक्तिगत होने का भी अब दावा नहीं किया जा सकता है।
एक तरह से 'आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस' हमारे विश्वास और बातचीत करने की योग्यता को भी खत्म कर रहा है। रही बात सूचनाओं की तो सूचनाएं हमेशा सत्य नहीं होती।युवाल नोआ हरारी कहते हैं कि सूचनाओं की तरह सत्य भी एक बेहद पेचीदा मसला है। इस अर्थ में अगर देखा जाए तो सत्य की तह तक पहुंचाना और सत्य का ज्ञान प्राप्त करना आज के युग में कितना कठिन होता जा रहा है।अब तक हम बात - विचार को, सुनने -गुनने को, विचारों के आदान-प्रदान के जरिये एक दूसरे से सीखते -सीखाते रहे हैं।
अब अगर बातचीत की भी कोई गुंजाइश ही नहीं बचेगी, जैसा कि युवाल नोआ हरारी दावा कर रहे हैं। तब यह बेहद जरूरी है कि अभी से हम इन चुनौतियों का सामना करने के लिए आने वाली पीढ़ी को तैयार करें।
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