Chipko Movement: पेड़ पौधे प्राकृतिक सौन्दर्यता के प्रतीक होने के साथ ही पर्यावरण संरक्षण का भी काम करते हैं। परन्तु आधुनिकता और शहरीकरण के नाम पर वर्षों से जंगलों की अंधाधुंध कटाई से पर्यावरण को तो नुकसान हो ही रहा है साथ ही प्राकृतिक सौन्दर्यता भी ख़त्म होती जा रही है। आज दुनियाभर में पर्यावरण को बचाने तथा पेड़ पौधे लगाने के लिए विश्व पर्यावरण दिवस से लेकर तमाम कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। परन्तु पेड़-पौधों को बचाने के साथ पर्यावरण को बचाने की मुहिम सबसे पहले हिमालय पुत्री के नाम से मशहूर गौरा देवी के चिपको आन्दोलन द्वारा ही की गई। आखिर गौरा देवी की इस मुहिम का नाम चिपको आन्दोलन क्यों पड़ा आइये आपको बताते हैं।
दरसल जंगलों और पेड़ों को बचाने के लिए आज से करीब 51 साल पहले उत्तराखंड में कुछ महिलाओं ने अनूठा प्रयोग किया था, जिसकी गूंज पूरी दुनिया में सुनायी दी थी। 26 मार्च 1973 को उत्तराखंड के चमोली जिले के एक दूरस्थं गाँव रैंणी में शुरू हुए इस आन्दोलन को चिपको आंदोलन नाम दिया गया था। इस आंदोलन की शुरुआत गौरा देवी की ओर से की गई थी और भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे इसका नेतृत्व किया। इस आंदोलन में पेड़ों को काटने से बचने के लिए गांव के लोग पेड़ से चिपक जाते थे, और ठेकेदारों को पेड़ नहीं काटने दिया जाता था। इसी वजह से इस आंदोलन का नाम चिपको आंदोलन पड़ा था।
कैसे हुई चिपको आन्दोलन की शुरुआत:
गौरा देवी का जन्म सन 1925 में उत्तराखंड के लाता गाँव के मरछिया परिवार में नारायण सिंह के घर में हुआ था। उस समय बाल विवाह का ज्यादा प्रचलन था। इस कारण 12 वर्ष की छोटी उम्र में गौरा देवी का विवाह रैंणी गाँव के मेहरबान सिंह के साथ हुआ। यहीं से गौरा देवी के संघर्ष की शुरुआत होने लगी। जब गौरा देवी 22 साल की थीं और एकमात्र बेटा चन्द्रसिंह लगभग ढाई साल का, तब उनके पति का देहान्त हो गया। जनजातीय समाज में भी विधवा को कितनी ही विडम्बनाओं में जीना पड़ता है। गौरा देवी ने भी संकट झेले। धैर्य की प्रतिपूर्ति गौरा देवी बडे संघर्ष से काम करने लगी। सुबह जंगल जाना, पशुओं के लिए चारा पत्ती, रसोई के लिए सूखी लकड़ियाँ लाना आदि उनकी दिनचर्या बन गई। इस प्रकार के क्रियाकलापों से गौरा देवी का ज॔गल के प्रति प्रेम हो गया।
सन् 1970 में अलकनंदा नदी में भयंकर बाढ़ आ गई। इस बाढ़ से गाँव के गाँव निर्जन हो गये। अपार जन धन की हानि हुई। इस आपदा ने गौरा देवी के हृदय को झकझोर दिया। गौरा देवी ने चिंतन मनन करके यह निष्कर्ष निकाला कि हमें पहाड़ की सुरक्षा करना है, तो जंगलों को बचाना होगा। यद्यपि गौरा देवी पढी लिखी नहीं थी, परन्तु फिर भी उन्हें प्राचीन वेद पुराण, रामायण, भागवत गीता, महाभारत आदि की अच्छी जानकारी थी। गौरा देवी जंगलों को अपना मायका मानती थी। गौरा देवी का कहना था कि हमें यहाँ से तरह तरह की जडी बूटियाँ मिलती हैं। सम्पूर्ण पृथ्वी का अस्तित्व वनों पर ही निर्भर करता है। यदि हम पेड़ पौधे काटेगें तो प्रकृति का संतुलन बिगड़ जायेगा और बाढ़ आने की संभावना बढ जायेगी।
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