राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) के पाठ्यक्रमों में हुए परिवर्तनों पर इन दिनों विवाद छिड़ा हुआ है। पहले भी कई बार एनसीईआरटी के पाठ्यक्रमों में बदलाव हुए हैं। शिक्षा का मूल उद्देश्य विद्यार्थियों में दक्षता और जीवन मूल्यों का निवेश होता है। इन दोनों में से किसी एक का कम होना या न होना शिक्षा की पूरी अवधारणा को ही ध्वस्त कर देता है। सतत परिवर्तन और परिवर्द्धन पाठ्यक्रमों को समकालीन और भविष्योन्मुखी बनाते हैं। लेकिन दुखद है कि शिक्षा के ढांचे में किसी परिवर्तन को आसानी से स्वीकार्यता नहीं मिलती है। यदि नई पाठ्य सामग्री जोड़नी है, तो पुरानी पाठ्य सामग्री में से कुछ हटाना तो पड़ेगा ही। ऐसा नहीं होने पर पाठ्यक्रम सुरसा के मुंह की तरह होता जाएगा और बोझिल बनकर अप्रासंगिक हो जाएगा।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के साथ अध्ययन-अध्यापन में बहुत-सी नई बातें भी जुड़ी हैं। अब सारा बल पाठ्यक्रमों को शिक्षार्थी केंद्रित बनाने पर है। विद्यार्थी की रुचि अब सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। वह कोर पाठ्यक्रम के साथ अब अपनी रुचि का माइनर पाठ्यक्रम चुन सकता है। ऐसे में आज के युवाओं के अनुकूल पाठ्यक्रम बनाना समय की मांग है। यह अकारण नहीं है कि राष्ट्रीय पाठ्यक्रमम ढांचे में व्यावसायिक प्रशिक्षण के लिए मिडिल स्तर पर सप्ताह में ढाई घंटे और सेकेंडरी स्तर पर तीन घंटे का समय रखने को कहा गया है। मूल्यांकन में भी 75 प्रतिशत प्रैक्टिकल का वेटेज (मान) होगा। अब छठी कक्षा से ही पेशेवर प्रशिक्षण की शुरुआत हो जाएगी। वैश्विक महंगाई और बेरोजगारी के कठिन समय में हमें विद्यालयी शिक्षा के ढांचे में आवश्यक परिवर्तन-परिवर्द्धन करने ही होंगे।
यह स्वीकृत तथ्य है कि विज्ञान, कंप्यूटर विज्ञान, वाणिज्य और समाज विज्ञान के कई विषय सतत परिवर्द्धन और परिवर्तन के बिना अप्रासंगिक ज्ञान का कुंड बन जाएंगे। नए शोध हमेशा अग्रगामी होते हैं। उन्हें शामिल किए बिना विषय विशेष न पुनर्नवा हो सकेगा और न ही ज्ञान की गरिमा से युक्त। विशेषज्ञ समितियां ही तय करें कि उन्हें विद्यार्थियों और देश के हित में क्या रखना है और क्या छोड़ना है। आज कंप्यूटर विज्ञान, जीवविज्ञान, भौतिक विज्ञान और विज्ञान की अन्य शाखाओं में तीस, चालीस या पचास वर्ष पहले की सामग्री नहीं पढ़ाई जा रही है, क्योंकि विज्ञान पढ़ने-पढ़ाने वालों ने अद्यतन ज्ञान को महत्व दिया। इसका मतलब यह भी नहीं कि उन्होंने अपने आरंभिक वैज्ञानिकों को विस्मृत कर दिया। उन सभी के बारे में स्कूली छात्रों को नहीं, बल्कि उच्च शिक्षा अर्जित करने वालों को पढ़ाया जाना चाहिए।
ऐसे समय में जब प्रतिस्पर्धा वैश्विक है, शिक्षा को गतिशील बनाना ही होगा। पाठ्य पुस्तकों के पृष्ठों और 12वीं तक के छात्रों की ग्रहण क्षमता पर भी विचार जरूरी है। वे शोधार्थी नहीं हैं कि उन्हें उस विषय से संबंधित हरेक जानकारी दे दी जाए। वे तनावों से भरे समकालीन विश्व में जीवन मूल्यों के साथ ही कॅरियर की समस्या से भी जूझ रहे हैं। उन्हें पाठ्यक्रमों में ऐसे प्रसंगों को नहीं पढ़ाया जाना चाहिए, जो किसी नकारात्मकता को जन्म देते हों।
जैसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या के संदर्भ में नाथूराम गोडसे का जिक्र आता है, उसमें यह बताया जाना कि वह किस जाति से था, अलग किस्म का भाव पैदा करता है। पाठ्यक्रम की यह बुनावट स्कूली विद्यार्थी के मन पर क्या असर डालेगी? इतिहास, राजनीति शास्त्र और साहित्य के पाठ्यक्रमों में हुए बदलाव अक्सर विवाद का विषय बनते रहे हैं। विवाद के बीच बहुत थोड़े से लोग यह देख-समझ पाते हैं कि संबंधित विवाद में कोई तत्व है भी या नहीं।
भारत को स्वतंत्र हुए पचहत्तर वर्ष हो चुके हैं। इतनी लंबी कालावधि में बहुत सारा नया इतिहास बना है। बहुत-सी ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिन्हें आरंभिक कक्षाओं में पढ़ाया जाना चाहिए। जाहिर है, नया जोड़ने के लिए पुराने में से कुछ को हटाना पड़ेगा। तभी तो स्वतंत्र भारत का जरूरी इतिहास विद्यार्थी पढ़ पाएंगे। यह सर्वथा समीचीन है कि संपूर्णता के लिए सुदूर अतीत के साथ निकट अतीत का भी ज्ञान छात्रों को हो। पराजय और षड्यंत्रों के इतिहास से अधिक जरूरी है, संघर्ष और विजय का इतिहास। यह भी विचारणीय है कि इतिहास के जो प्रसंग एक कक्षा में पढ़ा दिए गए, वे ही प्रसंग अगली कक्षा में क्यों पढ़ाए जाने चाहिए? दोहराव से ज्ञान बढ़ता नहीं, अरुचिकर हो जाता है। यदि किसी विद्यार्थी को भविष्य में उसी विषय में उच्च शिक्षा अर्जित करनी होगी, तो वह वांछित सामग्री का अध्ययन कर लेगा। तब वहां अध्ययन की कोई सीमा उसके समक्ष नहीं होगी।
साहित्य के पाठ्यक्रमों में भी विद्यालय स्तरीय शिक्षा में यह देखा जाना चाहिए कि प्रत्येक स्तर पर लेखकों का दोहराव न हो। विद्यार्थियों ने जिन लेखकों-कवियों को कक्षा सात में पढ़ा है, यदि वे ही लेखक-कवि उन्हें कक्षा नौ में भी पढ़ाए जाएंगे, तो उन विद्यार्थियों में नया क्या जुड़ेगा? बस कहानियां और कविताएं बदल जाएंगी। निश्चित रूप से भिन्न-भिन्न लेखक-कवि पढ़ाए जाने पर उनकी रुचि और ज्ञान का विस्तार होगा। विद्यार्थी अपने स्कूली जीवन में अधिक लेखकों-कवियों को पढ़ेगा, तो भविष्य में साहित्य का विद्यार्थी न होने पर भी वह साहित्यिक-कलात्मक अभिरुचि से संपन्न व्यक्ति के रूप में अपनी पहचान कायम कर सकेगा।
राजनीति शास्त्र के पाठ्यक्रम में भी यह जरूरी है कि छात्रों को वे राजनीतिक दर्शन भी पढ़ाए जाएं, जो स्वतंत्रता आंदोलन के साथ और बाद में देश में विकसित हुए हैं। ऐसे सभी प्रकार के राजनीतिक दर्शनों ने भारतीय जन-मन को प्रभावित किया है। यह कैसे संभव है कि सिर्फ स्वतंत्रता के बाद के आरंभिक वर्षों का चुना हुआ राजनीतिक इतिहास पढ़ाया जाए, बाकी छोड़ दिया जाए? पाठ्यक्रम निर्धारण में किसी भी विचार की अपेक्षा देश को केंद्र में रखना आवश्यक है।
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